समरसता के निर्माण में देव संस्कृति हो सहायक लोक संस्कृति समाज की जीवन रेखा है। सम्बद्ध समाज को सरस, सहिष्णु और समरस बनाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। हिमाचल की लोक-संस्कृति स्वयं में विशिष्टता लिए हुए है जिसमें भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति का प्रभाव प्रत्यक्ष रूपेण दृष्टिगत होता है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ एवं भारत के मूल सनातन धर्म के आधार ग्रन्थ वेदों में रिषियों द्वारा पृथिवी तथा उस पर विद्यमान पर्वत शिखरों, नदियों, वृक्षों एवं अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, वरूण, मरूत, वायु आदि में देवत्व स्थापित कर उनका रिचाओं वैदिक मन्त्रों द्वारा गुणगान किया गया है। हिमालय तो स्वयं देवत्व को प्राप्त है। उसके आंचल में स्थित हिमाचल देवभूमि कहलाती है। इसकी उंची चोटियों पर कैलाश पर्वत के समान शिव का वास है। वर्तमान में भी हिमाचलवासी इन ऊंचे पर्वत शिखरों एवं उस पर आधिष्ठित पाषाण-शिलाओं की शिवलिंग के रूप में पूजा करते हैं। विशालकाय वृृक्षों में काली का आह्नान का पताका एवं भोग चढ़ा कर उनकी पूजा का विधान है। यहां की पवित्रा एवं निर्मल जल वाली नदियों को देवी स्वरूप मानकर विशेष पर्व एवं त्यौहारों में उनमें स्नान कर यहां के निवासी स्वयं को धन्य एवं पुण्यभागी मानते हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उपर्युक्त धार्मिक एवं पुण्य स्थलों पर हर जाति एवं हर वर्ग के लोग शामिल होते हैं साथ ही सभी लोग मिलकर धार्मिक त्यौहारों को मनाते हैं। वर्तमान में शिक्षित समाज में परिवर्तन नजर आने लगा है। अधिकांश देवताओं के मन्दिरों में बलि-प्रथा प्रायः समाप्त होे चुकी है जिसमें सरकार और उच्च न्यायालय का भी सहयोग प्राप्त हुआ है। कुछ अन्य रूढ़ी-परम्पराओं में भी बदलाव आया है। शिक्षा का लाभ यह हुआ है कि लोगों में सजगता बढ़ रही है तथा रूढ़ी-परम्पराओं एवं मान्यताओं के प्रति अन्ध् विश्वास घटता जा रहा है। संकीर्ण सोच को तिलाज्जलि देकर युवा-वर्ग वैश्विक सोच रखते हुए आगे बढ़ रहा है। दलित वर्ग भी शिक्षित हो अपने अधिकारों के प्रति सजग हो चुका है। आज हिमाचल की विख्यात एवं दिव्य शक्तिपीठों में तथा अन्य प्रसिद्ध एवं दर्शनीय देवी-देवताओं के अधिकांश मन्दिरों में सभी जाति-धर्म के लोग दर्शनार्थ एवं अपनी मन्नत पूर्ण करने के लिए प्रवेश कर सकते हैं। सहभोज एवं भण्डारे में एक ही पंक्ति में बैठ भोजन करते हैं। इस प्रकार भेदभाव और अस्पृश्यता की दीवारें टूटती नजर आ रही हैं। वास्तव में स्थानीय देवी-देवताओं के रूप में बड़े भक्ति भाव से हम उसी परम पिता परमेश्वर का स्मरण करते हैं जो समदर्शी है और सबका रक्षक है। सम्पादक, डा. दयानन्द