राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य सम्पूर्ण समाज को संगठित कर अपने हिन्दू जीवन दर्शन के प्रकाश में समाज की सर्वांगीण उन्नति करना है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य किसी भी मजहब विशेष के विरुद्ध नहीं है। परन्तु किसी भी प्रकार की राष्ट्र विरोधी गतिविधि का संघ हमेशा विरोध करता आया है। समाज के वामपंथी एवं तथाकथित सेकुलर लेखक जो संघ के विरुद्ध लगातार झूठा और गलत प्रचार करते आये हैं। संघ को मुस्लिम एवं ईसाई विरोधी बताने का प्रयास करते रहते है। मजहब के आधार पर मुस्लिम तथा ईसाईयों के साथ भेदभाव करने की संघ की नीति रही है ऐसा गलत प्रचार ये लोग करते हैं और इसके समर्थन में श्री गुरुजी द्वारा लिखित वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइनड नामक पुस्तक का संदर्भ देते है। वास्तव में यह पुस्तक संघ का अधिकृत साहित्य नहीं है। जिस समय यह पुस्तक प्रकाशित हुई उस समय श्री गुरूजी संघ के सरसंघचालक तो नहीं थे। वे संघ के पदाधिकारी भी नहीं थे। भारत में रहने वाले मुस्लिम तथा ईसाई बंधुओं के बारे में संघ की सोच क्या है। यह श्री गुरूजी ने विख्यात पत्रकार श्री सैफुद्दीन जिलानी के साथ मुलाकात में साक्षात्कार में स्पष्ट की है। यही संघ की अधिकृत भूमिका है। इस मुलाकात के तथ्य नीचे प्रस्तुत हैं। संघ की अधिकृत भूमिका क्या है, यह सब जान सकेंगे और संघ के विरुद्ध निराधार दुष्प्रचार करने वालों के झूठ का पर्दाफाश होगा। हालांकि यह साक्षात्कार काफी अर्से पहले का है लेकिन वर्तमान समय में भी विषय की प्रसांगिकता के कारण संघ के दृष्टिकोण के तहत महत्वपूर्ण है।
जानेमाने पत्रकार डॉ सैफुद्दीन जिलानी के साथ 30 जनवरी 1971 को श्री गुरूजी से कोलकाता में हुआ वार्तालाप
डॉ जिलानी: देश के समक्ष आज जो संकट मुँह बायें खड़े हैं, उन्हें देखते हुए हिन्दू-मुस्लिम समस्या का कोई निश्चित हल ढूँढना, क्या आपको प्रतीत नहीं होता ?
श्री गुरुजी: देश का विचार करते समय मैं हिंदू और मुसलमान- इस रूप में विचार नहीं करता, परंतु इस प्रश्न की ओर लोग इस दृष्टि से देखते हैं। आजकल सभी लोग राजनीतिक दृष्टिकोण से ही विचार करते दिखाई देते हैं। हर कोई राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यक्तिगत अथवा जातिगत स्वार्थ सिद्ध करने में लिप्त है। इस परिस्थिति पर मात करने का केवल एक ही उपाय है और वह है राजनीति की ओर देशहित और केवल देशहित की ही दृष्टि से देखना। उस स्थिति में वर्तमान सभी समस्यायें देखते ही देखते हल हो जायेंगी।
हाल ही में मैं दिल्ली गया था। उस समय अनेक लोग मुझसे मिलने आये थे। उनमें भारतीय क्राँति दल, संगठन कांग्रेस आदि दलों के लोग भी थे। संघ को हमने प्रत्यक्ष राजनीति से अलग रखा है, परंतु मेरे कुछ पुराने मित्र जनसंघ में होने के कारण कुछ मामलों में, मैं मध्यस्थता करूँ, इस हेतु से वे मुझसे मिलने आये थे। उनसे मैंने एक सामान्य-सा प्रश्न पूछा- ‘आप लोग हमेशा अपने दल का और आपके दल के हाथ में सत्ता किस तरह आये, इसी का विचार किया करते हैं। परंतु दलीय निष्ठा व दलीय हितों का विचार करते समय क्या आप संपूर्ण देश के हितों का कभी विचार करते हैं?’ इस सामान्य से प्रश्न का ‘हाँ’ में उत्तर देने कोई सामने नहीं आया। समग्र देश के हितों का विचार सचमुच उनके सामने होता, तो वे वैसा साफ-साफ कह सकते थे, किंतु उन्होंने नहीं कहा। इसका अर्थ स्पष्ट है कि कोई भी दल समग्र देश का विचार नहीं करता। मैं समग्र देश का विचार करता हूं। इसलिये मैं हिंदुओं के लिये कार्य करता हूँ, परंतु कल यदि हिंदू भी देश के हितों के विरुद्ध जाने लगें, तब उनमें मेरी कौन-सी रुचि रह जायेगी?
रही मुसलमानों की बात। मैं यह समझ सकता हूँ कि अन्य लोगों की तरह उनकी भी न्यायोचित माँगें पूरी की जानी चाहिये, परंतु जब चाहे, तब विभिन्न सहूलियतों और विशेषाधिकारों की माँगें करते रहना कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मैंने सुना है कि प्रत्येक प्रदेश में एक छोटे पाकिस्तान की माँग उठाई गई है। जैसा कि प्रकाशित हुआ है, एक मुस्लिम संगठन के अध्यक्ष ने तो लाल किले पर अपना झंडा फहराने की योजना की बात कही है। उन महाशय ने अब तक इसका खंडन भी नहीं किया है। ऐसी बातों से समग्र देश का विचार करने वालों का संतप्त होना स्वाभाविक है।
उर्दू के आग्रह का विचार करें। पचास वर्षों के पूर्व तक विभिन्न प्रांतों के मुसलमान अपने-अपने प्रांतों की भाषायें बोला करते थे तथा उन्हीं भाषाओं में शिक्षा-ग्रहण किया करते थे। उन्हें कभी ऐसा नहीं लगा कि उनके धर्म की कोई अलग भाषा है।
उर्दू मुसलमानों की धर्म-भाषा नहीं है। मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में वह उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती-भर संबंध नहीं है। पवित्र कुरान अरबी में लिखा है। अतः मुसलमानों की अगर कोई धर्म-भाषा हो, तो वह अरबी ही होगी। ऐसा होते हुए भी आज उर्दू का इतना आग्रह क्यों? इसका कारण यह है कि इस भाषा के सहारे वे मुसलमानों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहते हैं। यह संभावना ही नहीं तो एक निश्चित तथ्य है कि इस तरह की राजनीतिक शक्ति देशहित के विरुद्ध ही जायेगी।
कुछ मुसलमान कहते हैं कि उनका राष्ट्र-पुरुष रुस्तम है। सच पूछा जाये, तो मुसलमानों का रुस्तम से क्या संबंध? रुस्तम तो इस्लाम के उदय के पूर्व ही हुआ था। वह कैसे उनका राष्ट्र-पुरुष हो सकता है? और फिर, प्रभु रामचंद्र जी क्यों नहीं हो सकते? मैं पूछता हूँ कि आप यह इतिहास स्वीकार क्यों नहीं करते?
पाकिस्तान ने पाणिनि की 5 हजारवीं जयंती मनाई। इसका कारण यह है कि जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम से पहचाना जाता है, वहीं पाणिनी का जन्म हुआ था। यदि पाकिस्तान के लोग गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि पाणिनी उनके पूर्वजों में से एक हैं, तो फिर भारत के मुसलमान (मैं उन्हें हिंदू मुसलमान कहता हूँ) पाणिनी, व्यास, वाल्मीकि, राम, कृष्ण आदि को अभिमानपूर्वक अपने महान पूर्वज क्यों नहीं मानते?
हिंदुओं में ऐसे अनेक लोग हैं, जो राम, कृष्ण आदि को ईश्वर के अवतार नहीं मानते। फिर भी वे उन्हें महापुरुष मानते हैं, अनुकरणीय मानते हैं। इसलिये मुसलमान भी यदि उन्हें अवतारी पुरुष न मानें, तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला, परंतु क्या उन्हें राष्ट्रपुरुष नहीं माना जाना चाहिये?
हमारे धर्म और तत्त्वज्ञान की शिक्षा के अनुसार हिंदू और मुसलमान समान ही हैं। ऐसी बात नहीं कि ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार केवल हिंदू ही कर सकता है। अपने-अपने धर्म-मत के अनुसार कोई भी साक्षात्कार कर सकता है।
श्रृंगेरी मठ के शंकराचार्य का ही उदाहरण लें। यह उदाहरण, वर्तमान शंकराचार्य के गुरु का है। एक अमेरिकी व्यक्ति उनके पास आया और उसने प्रार्थना की कि उसे हिंदू बना लिया जाये। इस पर शंकराचार्य जी ने उससे पूछा- ‘वह हिंदू क्यों बनना चाहता है’ उसने उत्तर दिया कि ईसाई धर्म से उसे शांति प्राप्त नहीं हुई है। आध्यात्मिक तृष्णा भी अतृप्त ही है।
इस पर शंकराचार्य जी ने उससे कहा- ‘क्या तुमने ईसाई धर्म का प्रमाणिकतापूर्वक पालन किया है? यदि तुम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके होगे कि ईसाई धर्म का पालन करने के बाद भी तुम्हें शांति नहीं मिली, तो मेरे पास अवश्य आओ।’
हमारा दृष्टिकोण इस तरह का है। हमारा धर्म, धर्म-परिवर्तन न करानेवाला धर्म है। धर्मांतरण तो प्रायः राजनीतिक अथवा अन्य हेतु से कराये जाते हैं। इस तरह का धर्म-परिवर्तन हमें स्वीकार नहीं है। हम कहते हैं- ‘यह सत्य है। तुम्हें जँचता हो तो स्वीकारो, अन्यथा छोड़ दो।’
दक्षिण की यात्रा के दौरान मदुरै में कुछ लोग मुझसे मिलने के लिये आये। मुस्लिम-समस्या पर वे मुझसे चर्चा कर मुसलमानों के विषय में मेरा दृष्टिकोण चाहते थे। मैंने उनसे कहा- ‘आप लोग मुझसे मिलने आये, मुझे बड़ा आनंद हुआ। हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि हम सबके पूर्वज एक ही हैं। हम सब उनके वंशज हैं। आप अपने-अपने धर्मों का प्रामाणिकता से पालन करें, परंतु राष्ट्र के मामले में हम सबको एक रहना चाहिये। राष्ट्रहित के लिये बाधक सिद्ध होने वाले अधिकारों और सहूलियतों की माँग बंद होनी चाहिये। हम हिंदू हैं, इसलिये हम विशेष सहूलियतों या अधिकारों की कभी बात नहीं करते। ऐसी स्थिति में कुछ लोग यदि कहने लगें कि ‘हमें अलग होना है’, ‘हमें अलग प्रदेश चाहिये’ तो यह कतई सहन नहीं होगा।’
ऐसी बात नहीं है कि यह प्रश्न केवल हिंदू और मुसलमानों की बीच ही हो। यह समस्या तो हिंदुओं के बीच भी है। जैसे हिंदू समाज में जैन लोग हैं, तथाकथित अनुसूचित जातियाँ हैं। अनुसूचित जातियों में से कुछ लोगों ने डा। अम्बेडकर के अनुयायी बनकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अब वे कहते हैं कि- ‘हम अलग हैं।’ अपने देश में अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष राजनीतिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिये प्रत्येक गुट स्वयं को अल्पसंख्यक बताने का प्रयास कर रहा है तथा उसके आधार पर कुछ विशेष अधिकार और सहूलियतें माँग रहा है। इससे अपने देश के अनेक टुकड़े हो जायेंगे और सर्वनाश होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। कुछ जैन-मुनि मुझसे मिले। उन्होंने कहा ‘हम हिंदू नहीं हैं। अगली जनगणना में हम स्वयं को जैन के नाम से दर्ज करायेंगे।’ मैंने कहा- ‘आप आत्मघाती सपने देख रहे हो।’ अलगाव का अर्थ है- देश का विभाजन और विभाजन का परिणाम होगा आत्मघात।
जब लोग प्रत्येक बात का विचार राजनीतिक स्वार्थ की दृष्टि से करने लगते हैं, तब अनेक भीषण समस्यायें उत्पन्न होती हैं, किंतु इस स्वार्थ को अलग रखते ही अपना देश एकसंघ बन सकता है। फिर हम संपूर्ण विश्व की चुनौती का सामना कर सकते हैं।
डॉ जिलानी: भौतिकतावाद और विशेषतः साम्यवाद से अपने देश के लिये खतरा पैदा हो गया है। हिंदू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि दोनों मिलकर इस संकट का मुकाबला कर सकते हैं?
श्री गुरुजी: यही प्रश्न कश्मीर के सज्जन ने मुझसे किया था। उनका नाम संभवतः नाजिर अली है। अलीगढ़ में मेरे एक मित्र अधिवक्ता श्री मिश्रीलाल के निवास-स्थान पर वे मिले थे। उन्होंने कहा- ‘नास्तिकता और साम्यवाद हम सभी पर अतिक्रमण हेतु प्रयत्नशील हैं। अतः ईश्वर पर विश्वास रखने वाले हम सभी को चाहिये कि हम सामूहिक रूप से इस खतरे का मुकाबला करें।
मैंने कहा, ‘मैं आपसे सहमत हूँ’, परंतु कठिनाई यह है कि हम सबने मानो ईश्वर की प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर डाले हैं और हरेक ने एक-एक टुकड़ा उठा लिया है। आप ईश्वर की ओर अलग दृष्टि से देखते हैं, ईसाई अलग दृष्टि से देखते हैं। बौद्ध लोग तो कहते हैं कि ईश्वर तो है ही नहीं, जो कुछ है, वह निर्वाण ही है। जैन लोग कहते हैं कि सब कुछ शून्याकार ही है। हममें से अनेक लोग राम, कृष्ण, शिव आदि के रूप में ईश्वर की उपासना करते हैं। इन सबको आप यह किस तरह कह सकेंगे कि एक ही सर्वमान्य ईश्वर को माना जाये। इसके लिये आपके पास क्या कोई उपाय है?’ मेरी यह धारणा थी कि सूफी ईश्वरवादी और विचारशील हुआ करते हैं, परंतु उस सूफी सज्जन ने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जायेंगे। उन्होंने कहा- ‘तो फिर आप सब लोग इस्लाम ही क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?’
मैंने कहा- ‘फिर तो कुछ लोग कहेंगे कि ईसाई क्यों नहीं बन जाते? मेरे धर्म के प्रति मेरी निष्ठा है, इसलिये मैं यदि आपसे कहूं कि आप हिंदू क्यों नहीं बन जाते, तब? याने समस्या वैसी की वैसी ही रह गई। वह कभी हल नहीं होगी।
इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि आपकी क्या राय है? मैंने बताया कि सभी अपने-अपने धर्म का पालन करें। एक ऐसा सर्वसारभूत तत्वज्ञान है, जो केवल हिंदुओं का या केवल मुसलमानों का ही हो, ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वज्ञान को आप अद्वैत कहें या और कुछ। यह तत्त्वज्ञान कहता है कि एक एकमेवाद्वितीय शक्ति है, वही सत्य है, वही आनन्द है, वही सृजन, रक्षण और संहार करती है। अपनी ईश्वर की कल्पना उसी सत्य का सीमित अंश है। अंतिम सत्य का यह मूलभूत रूप किसी धर्म-विशेष का नहीं, अपितु सर्वमान्य है। यही रूप हम सबको एकत्रित कर सकता है। सभी धर्म वस्तुतः ईश्वर की ओर ही उन्मुख करते हैं। अतः यह सत्य आप क्यों स्वीकार नहीं करते कि मुसलमानों, ईसाईयों और हिंदुओं का परमात्मा एक ही है और हम सब उसके भक्त हैं। एक सूफी के रूप में तो आपको इसे स्वीकार करना चाहिये। इस पर उनके पास कोई उत्तर नहीं था। दुर्भाग्य से हमारी बातचीत यहीं समाप्त हो गई।
डॉ जिलानी: हिंदू और मुसलमानों के बीच आपसी सद्भावना बहुत है, फिर भी समय-समय पर छोटे-बड़े झगड़े होते ही रहते हैं। इन झगड़ों को मिटाने के लिये आपकी राय में क्या किया जाना चाहिये?
श्रीगुरुजी: आप अपने लेखों में इन झगड़ों का एक कारण हमेशा बताते हैं। वह कारण है गाय। दुर्भाग्य से अपने लोग और राजनीतिक नेता भी इस कारण का विचार नहीं करते। परिणामतः देश के बहुसंख्यकों में कटुता की भावना उत्पन्न होती है। मेरी समझ में नहीं आता कि गोहत्या के विषय में इतना आग्रह क्यों है? इसके लिये कोई कारण दिखाई नहीं देता। इस्लाम-धर्म गोहत्या का आदेश नहीं देता। पुराने जमाने में हिंदुओं को अपमानित करने का वह एक तरीका रहा होगा। अब वह क्यों चलना चाहिये?
इसी प्रकार की अनेक छोटी-बड़ी बातें हैं। आपस के पर्वों-त्यौहारों में हम क्यों सम्मिलित न हों? होलिकोत्सव समाज के सभी स्तरों के लोगों को अत्यंत उल्लासयुक्त वातावरण में एकत्रित करने वाला त्यौहार है। मान लीजिये कि इस त्यौहार के समय किसी मुस्लिम बंधु पर कोई रंग उड़ा देता है, तो इतने मात्र से क्या कुरान की आज्ञाओं का उल्लंघन हो जाता है? इन बातों की ओर एक सामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाना चाहिये। मैं आप पर रंग छिड़कूँ, आप मुझ पर छि़ड़कें। हमारे लोग तो कितने ही वर्षों से मोहर्रम के सभी कार्यक्रमों में सम्मिलित होते आ रहे हैं। इतना हीं नहीं तो अजमेर के उर्स जैसे कितने ही उत्सवों-त्यौहारों में मुसलमानों के साथ हमारे लोग भी उत्साहपूर्वक सम्मिलित होते हैं। किंतु हमारी सत्यनारायण की पूजा में यदि कुछ मुसलमान बंधुओं को हम आमंत्रित करें तो क्या होगा? आपको विदित होगा कि द्रमुक के लोग अपने मंत्रिमंडल के एक मुस्लिम मंत्री को रामेश्वर के मंदिर में ले गये। मंदिर के अधिकारियों, पुजारियों और अन्य लोगों ने उक्त मंत्री का यथोचित मान-सम्मान किया, किंतु उसे जब मंदिर का प्रसाद दिया गया, तो उसने उसे फेंक दिया। प्रसाद ग्रहण करने मात्र से तो वह धर्मभ्रष्ट होने वाला नहीं था। इसी तरह की छोटी-छोटी बातें हैं। अतः पारस्परिक आदर की भावना उत्पन्न की जानी चाहिये।
हमें जो वृत्ति अभिप्रेत है, वह सहिष्णुता मात्र नहीं है। अन्य लोग जो कुछ करते हैं, उसे सहन करना सहिष्णुता है। परंतु अन्य लोग जो कुछ करते हों, उसके प्रति आदर-भाव रखना सहिष्णुता से ऊँची बात है। इसी वृत्ति, इसी भावना को प्राधान्य दिया जाना चाहिये। हमें सबके विषय में आदर है। यही मार्ग मानवता के लिये हितकारक है। हमारा वाद सहिष्णुतावाद नहीं, अपितु सम्मानवाद है। दूसरों के मत का आदर करना हम सीखें तो सहिष्णुता स्वयंमेव चली आयेगी।
डॉ जिलानी: हिंदू और मुसलमानों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के कार्य के लिये आगे आने की योग्यता किसमें है, राजनीतिक नेता में, शिक्षाशास्त्री में या धार्मिक नेता में?
श्रीगुरुजी: इस मामले में राजनीतिज्ञ का क्रम तो सबसे अंत में लगता है। धार्मिक नेताओं के विषय में भी यही कहना होगा। आज अपने देश में दोनों ही जातियों के धार्मिक नेता अत्यंत संकुचित मनोवृत्ति के हैं। इस काम के लिये नितांत अलग प्रकार के लोगों की आवश्यकता है। जो लोग धार्मिक तो हों, किंतु राजनीतिक नेतागिरी न करते हों और जिनके मन में समग्र राष्ट्र का विचार सदैव जागृत रहता हो। धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। रामकृष्ण मिशन को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अतः आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासनाविषयक विभिन्न श्रद्धाओं को नष्ट न कर हम उनका आदर करें, उन्हें टिकाये रखें और उन्हें वृद्धिगत होने दें।
राजनीतिक नेताओं के जो खेल चलते हैं, उन्हीं से भेदभाव उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। जातियों, पंथों पर तो वे जोर देते हैं, साथ ही भाषा, हिंदू-मुस्लिम आदि भेद भी वे पैदा करते हैं। परिणामतः अपनी समस्यायें अधिकाधिक जटिल होती जा रही हैं। जाति-संबंधी समस्या के मामले में तो राजनीतिक नेता ही वास्तविक खलनायक हैं। दुर्भाग्य से राजनीतिक नेता ही आज जनता का नेता बन बैठा है, जबकि चाहिये तो यह था कि सच्चे, विद्वान, सुशील और ईश्वर के परमभक्त महापुरुष जनता के नेता बनते। परंतु इस दृष्टि से आज उनका कोई स्थान ही नहीं है। इसके विपरीत नेतृत्व आज राजनीतिक नेताओं के हाथों में है। जिनके हाथों में नेतृत्व है, वे राजनीतिक पशु बन गये हैं। अतः हमें लोगों को जागृत करना चाहिये।
दो दिन पूर्व ही मैंने प्रयाग में कहा है कि लोगों को राजनीतिक नेताओं के पीछे नहीं जाना चाहिये, अपितु ऐसे सतपुरुषों का अनुकरण करें, जो परमात्मा के चरणों में लीन हैं, जिनमें चारित्र्य है और जिनकी दृष्टि विशाल है।
डॉ जिलानी: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जातीय सामंजस्य-निर्माण का उत्तरदायित्व बहुसंख्यक समाज के रूप में हिंदुओं पर है?
श्रीगुरुजी: हाँ। मुझे यही लगता है, परंतु कुछ कठिनाइयों का विचार किया जाना चाहिये। अपने नेतागण संपूर्ण दोष हिंदुओं पर लादकर मुसलमानों को दोषमुक्त कर देते हैं। इसके कारण जातीय उपद्रव करने के लिये अल्पसंख्यक समाज, याने मुस्लिमों को सब प्रकार का प्रोत्साहन मिलता है। इसलिये हमारा कहना है कि इस मामले में दोनों को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करना चाहिये।
डॉ जिलानी: आपकी राय में आपसी सामंजस्य की दिशा में तत्काल कौन से कदम उठाये जाने चाहिये?
श्रीगुरुजी: इस तरह से एकदम कुछ कहना बहुत ही कठिन है, फिर भी सोचा जा सकता है। व्यापक पैमाने पर धर्म की यथार्थ शिक्षा देना एक उपाय हो सकता है। राजनीतिक नेताओं द्वारा समर्थित आज जैसी धर्महीन शिक्षा नहीं, अपितु सच्चे अर्थों में धर्म-शिक्षा लोगों को इस्लाम व हिंदू धर्म का ज्ञान कराये। सभी धर्म मनुष्य को महान, पवित्र और मंगलमय बनने की शिक्षा देते हैं। यह लोगों को सिखाया जाये।
दूसरा उपाय यह हो सकता है कि जैसा हमारा इतिहास है, वैसा ही हम पढ़ायें। आज जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह विकृत रूप में पढ़ाया जाता है। मुस्लिमों ने इस देश पर आक्रमण किया हो तो वह हम स्पष्ट रूप से बतायें, परंतु साथ ही यह भी बतायें कि वह आक्रमणकारी भूतकालीन हैं और विदेशियों ने किया है। मुसलमान यह कहें कि वे इस देश के मुसलमान हैं और ये आक्रमण उनकी विरासत नहीं हैं। परन्तु जो सही है, उसे पढ़ाने के स्थान पर जो असत्य है, विकृत है, वही आज पढ़ाया जाता है। सत्य बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। अंततः वह सामने आता है और तब उससे लोगों में दुर्भावना निर्माण होती है। इसलिये मैं कहता हूं इतिहास जैसा है वैसा ही पढ़ाया जाये। अफजलखाँ को शिवाजी ने मारा है, तो वैसा ही बताओ। कहो कि एक विदेशी आक्रामक और एक राष्ट्रीय नेता के तनावपूर्ण संबंधों के कारण यह घटना हुई। यह भी बतायें कि हम सब एक ही राष्ट्र हैं, इसलिये हमारी परंपरा अफजलखाँ की नहीं है। परन्तु यह कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। इतिहास के विकृतिकरण को मैं अनेक बार धिक्कार चुका हूँ और आज भी उसे धिक्कारता हूँ।
डॉ जिलानी: भारतीयकरण पर बहुत चर्चा हुई, भ्रम भी बहुत निर्माण हुये। क्या आप बता सकेंगे कि ये भ्रम कैसे दूर किये जा सकेंगे?
श्री गुरुजी: भारतीयकरण की घोषणा जनसंघ द्वारा की गई, किंतु इस मामले में संभ्रम क्यों होना चाहिये? भारतीयकरण का अर्थ सबको हिंदू बनाना तो है नहीं।
हम सभी को यह सत्य समझ लेना चाहिये कि हम इसी भूमि के पुत्र हैं। अतः इस विषय में अपनी निष्ठा अविचल रहना अनिवार्य है। हम सब एक ही मानव समूह के अंग हैं, हम सबके पूर्वज एक ही हैं, इसलिये हम सबकी आकांक्षायें भी एक समान हैं- इसे समझना ही सही अर्थों में भारतीयकरण है।
भारतीयकरण का यह अर्थ नहीं कि कोई अपनी पूजा-पद्धति त्याग दे। यह बात हमने कभी नहीं कही और कभी कहेंगे भी नहीं। हमारी तो यह मान्यता है कि उपासना की एक ही पद्धति संपूर्ण मानव जाति के लिये सुविधाजनक नहीं।
डॉ जिलानी: आपकी बात सही है। बिलकुल सौ फीसदी सही है। अतः इस सपष्टीकरण के लिये मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ।
श्रीगुरुजी: फिर भी मुझे संदेह है कि सब बातें मैं स्पष्ट कर सका हूँ या नहीं।
डॉ जिलानी: कोई बात नहीं। आपने अपनी ओर से बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। कोई भी विचारशील और भला आदमी आपसे असहमत नहीं होगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अपने देश का जातीय बेसुरापन समाप्त करने का उपाय ढूँढने में आपको सहयोग दे सकें, ऐसे मुस्लिम नेताओं की और आपकी बैठक आयोजित करने का अब समय आ गया है? ऐसे नेताओं से भेंट करना क्या आप पसंद करेंगे?
श्रीगुरुजी: केवल पसंद ही नहीं करूँगा, ऐसी भेंट का मैं स्वागत करूँगा।