दिग्विजय से पायें विश्व विजय की प्रेरणा ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ ये कहावत जितनी व्यक्ति पर लागू होती है, उतनी ही समाज पर भी लागू होती है। विजय की आकांक्षा व विजय की अनुभूति समाजमन को बल देते है। जब समूचा राष्ट्र ही अपनी शक्तियों को भूलने के कारण आत्मग्लानि से ग्रस्त हो जाता है तब कोई अद्वितीय विजय ही उसे इस मानसिक लकवे से बाहर ला सकती हैं। आत्मविस्मृति की मानसिकता पराभव की मानसिकता होती है, अकर्मण्यता की मानसिकता होती है। ऐसे में स्वप्न भी संकुचित हो जाते है। अपना सब कुछ क्षुद्र, त्याज्य लगने लगता है और पराई परम्परायें, विचार व संस्कार केवल अनुकरणीय ही नहीं सम्माननीय भी बन जाते है। 19वीं शताब्दी के अंत मे भारत की यही स्थिति थी। कहीं से कोई आशा नही दिखाई देती थी। पराधीनता तो थी ही, स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करने का आत्मविश्वास भी नष्ट सा हो गया था। अंग्रेजों के अंधानुकरण का यह चरम काल था। विदेशी शिक्षा में शिक्षित उच्च वर्ग अंग्रेज-भक्ति मे ही धन्यता समझने लगा था। इस बौद्धिक, मानसिक व आर्थिक दासता की पृष्ठभूमि में 11 सितम्बर 1893 को शिकागो की सर्वपंथसभा में हुए दिग्विजयी चमत्कार को समझना चाहिए। सनातन हिंदू धर्म का गर्वोन्नत प्रतिनिधत्व करते हुए योद्धा, युवा सन्यासी स्वामी विवेकानंद ने प्राचीन ऋषियों के दिव्य सम्बोधन से जब समूचे विश्व को संम्बोधित किया तब केवल सभागार में बैठे 7000 श्रोता ही नहीं अपितु पूरा अमेरिका बंधुत्व भाव से अनुप्राणित हो गया। श्रोताओं को लगभग आध्यात्मिक सी अनूभूतियाँ होने लगी। किसी ने कहा कि -’अमेरिका निवासी मेरे प्यारे भगिनी और बंधुवर’ इन पांच शब्दो को सुनकर हमारे शरीर में विद्युत तरंग सी दौडने लगी थी’। किसी ने अपनी दैनंदिनी मे लिखा कि मुझे मेरा खोया भाई मिल गया। जैसे सामान्यतः प्रचारित किया गया है कि श्रोताओं ने बहनों और भाईयों का संबोधन पहले सुना ही नही था, इस कारण कई मिनटों तक तालियाँ बजती रही। इसके विपरित, तथ्य यह है कि बंधुत्व के संबोधन का प्रयोग करने वाले स्वामी विवेकानंद उस दिन की सभा के पहले वक्ता नहीं थे। उनसे पूर्व भी अनेक लोगों ने लगभग ऐसे ही संबोधन से सभा को संबोधित किया था। फिर भी आधे घंटे बाद यह संबोधन सुनते ही श्रोताओं ने ऐसी अनूठी प्रतिक्रिया दी। इसके पीछे वैदिक ऋषियों की परंपरा से उत्पन्न भारतीय संस्कृति के एकात्म जीवन दर्शन की प्रत्यक्ष अनुभूति थी। इसीलिए यह केवल एक व्यक्ति का जागतिक मंच पर प्रतिष्ठित होना नहीं था, चिरपुरातन नित्यनूतन हिंदू जीवन पद्धति का विश्व विजय था। इस अदभुत घटना के मात्र 1 वर्ष के अंदर ही देश का सामान्यजन भी इसके बारे मे चर्चा करने लगा था। इस दिग्विजय की घटना ने भारत के मानस को झकझोर दिया और यह सुप्त देश जागृत हुआ। ’हम भी कुछ कर सकते हैं,’ ’हमारी अपनी धर्म, संस्कृति, परंपरा में विश्व विजय की क्षमता है’ इसका भान इस आत्मग्लानि से ग्रसित राष्ट्रदेवता को घोर निद्रा से बाहर लाने के लिए पर्याप्त था। अतः शिकागो की परिषद में हुए आध्यात्मिक दिग्विजय को हम भारत के सर्वतोमुखी विश्वविजय का शुभारंभ कह सकते हैं। इतिहास इस घटना के गांभीर्य को भले ही अभी पूर्णता से न समझ पाया हो और संभवतः आने वाले निकट भविष्य में भारत के विजय के पश्चात ही इसे जान सके किंतु स्वामी विवेकानंद स्वयं अपने पराक्रम को पहचानते थे। अतः 2 जनवरी 1897 को रामनाड में बोलते हुए उन्होने अपने अभूतपूर्व स्वागत के प्रत्युत्तर का प्रारंभ इन शब्दों से किया ’’सुदीर्घ रजनी अब समाप्तप्राय सी जान पडती है, यह काली घनी लंबी रात अब टल गयी; पूर्वाचल के नभ में उषाःकाल की लाली ने समूचे विश्व के सम्मुख यह उद्घोष कर दिया है कि यह सोया भारत अब जाग उठा है।’’ 1897 में अंग्रेजों की पराधीनता से ग्रस्त भारत के प्रति स्वामी विवेकानंद का अद्भुत आत्मविश्वास तो देखिए कि वे आगे कहते हैं ’’केवल अंधे देख नहीं सकते और विक्षिप्त बुद्धि समझ नहीं सकते कि यह सोया हुआ अतिकाय अब जाग उठा है। अब यह नहीं सोयेगा। विश्व की कोई शक्ति इसे तब तक परास्त नहीं कर सकती जब तक यह अपने दायित्व को न भुला दे।’’ स्वामी विवेकानंद ने मृतप्राय से हिंदू समाज के सम्मुख विश्वविजय का उदात्त लक्ष्य रखा। एक स्थान पर बोलते हुए उन्होने स्पष्टता से कहा है ’कोई अन्य नहीं व तनिक भी कम नहीं केवल विश्वविजय ही मेरा लक्ष्य है।’ जब हम पूरे विश्व में योग दिवस मनाने के बाद पुनः विश्वगुरू के पद पर माता को आसीन करने के संकल्प कर रहे हैं तब हमें भारत के इस आध्यात्मिक विश्वविजय के जीवन लक्ष्य का पुनःस्मरण करना अत्यावश्यक है। स्वतंत्रता के पश्चात हमारी शिथिलता ने नयी पीढी को राष्ट्र ध्येय के प्रति उदासीन कर दिया है। भारत के स्वातंत्र्य का अर्थ ही वर्तमान पीढी भूल गई हैं। इस कारण जब थोडे से देशाभिमान से आज का युवा प्रेरित भी हो जाए तो भारत को विश्व का सबसे अमीर देश बनाने का स्वप्न देखता है। स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट कहा है ’भारत विश्वविजय करेगा यह निश्चित है किन्तु यह विजय राजनैतिक, सैन्यबल अथवा आर्थिक शक्ति से नहीं होगी। अपितु आत्मा की शक्ति से ही होगी’ स्वामी जी ने सिंहगर्जना की थी, ’उठो भारत! अपनी आध्यात्मिक शक्ति से संपूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करो।’ आर्थिक सम्पन्नता, कूटनीतिक सम्प्रभुता इस आध्यत्मिक जगतगुरु पद के प्रतिबिम्ब मात्र होंगे। अतः प्रयत्न राष्ट्र की संस्कृति के आध्यत्मिक जागरण के लिए होने चाहिए। स्वामी विवेकानंद के दिग्विजय दिन पर हमारी सम्यक श्रद्धांजलि यह होगी, कि हम चिरविजय की आकांक्षा को राष्ट्रजीवन में पुन: जागृत कर दें। स्वामी विवेकानंद ने यही दृष्य अपनी आँखों से जीवंत स्पष्ट देखा था और उन्होंने आहवान किया था ’हम अपने जीवन पुष्प अर्पित कर अपनी मातृभूमि को विश्वमान्य गुरुपद पर आसीन करें।’ आइए, संकल्प करें कि अपने जीते जी इस दृष्टि को साकार करने का प्राणपण से पराक्रम करेंगे। मुकुल कानिटकर अ. भा. सहसंगठन मंत्री भारतीय शिक्षण मण्डल