हिमाचल की हेला या बुआरा प्रथा एक युग था जब हिमाचल के गांवों में सारा काम काज एक इकाई के अधीन होता था। गांव का हर व्यक्ति एक दूसरे से जुड़ा रहता था। उन सब में आपसी सहयोग की भावना होती थी। यहां तक कि कोई अपाहिज, बूढ़ा बिना कमाई के नहीं रह पाता था। यह ठीक है कि अपाहिज होने के नाते कोई व्यक्ति अपनी खेती-बाड़ी का काम नहीं कर सकता, किन्तु यदि उस गांव का सहयोग हो, तो उस का कोई काम रुक नहीं सकता था। गांव का नियम था कि किसी भी बड़े काम में, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग या दर्जे के का हो, गांव के हर घर से एक व्यक्ति उस काम में सहयोग जरूर देगा। इस कार्य को वहां के लोग ‘हेला या बुआरा’ प्रथा कहते हैं। वर्ष में दो बार खेती-बाड़ी के समय पर ऐसे बहुत से अवसर आते हैं जब कि गांव के हर घर को ‘हेला’ या ‘बुआरा’ से अपना काम पूरा कराना पड़ता है। ऐसे समय या अवसरों पर गांव के हर घर में सन्देश भेज कर बुलावा भेजा जाता है कि पफलां समय पर अमुक दिन अमुक कार्य के लिए आ जाएं। इस बुलावे के अनुसार हर घर से एक एक व्यक्ति बुलावे वाले घर पर जाता है। ऐसे समय पर बुलावा भेजने वाला घर उन लोगों को दोपहर तथा शाम का भोजन देता है। इसी प्रकार जितने दिन का यह काम होगा, सब मिल कर करेंगे। यह कार्यक्रम हर एक घर के साथ चलेगा। इस से सारे गांव का काम भी समय पर होगा और किसी व्यक्ति को यह अनुभव भी नहीं होगा कि ‘मैं’ पीछे रह गया हूं। वैसे तो अब भी ‘हेला’ या ‘बुआरा’ हिमाचल में कहीं-कहीं प्रचलित है किन्तु इसका लोप होना हमें आहिस्ता-आहिस्ता दिखाई दे रहा है। रवीन्द्र रणदेव